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दुखों की अपनी इक तफ़्सीर होती है | शाही शायरी
dukhon ki apni ek tafsir hoti hai

नज़्म

दुखों की अपनी इक तफ़्सीर होती है

यासमीन हमीद

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अँधेरे से
कशीद-ए-सुब्ह की

रौशन गवाही माँगने से
रात के लम्हे

न घटते हैं
न बढ़ते हैं

कभी गहरे भँवर के बीच उठती
दूरियों की धुँद में लिपटी

किसी की साहिली आवाज़
दरिया का किनारा भी नहीं होती

दुखों की अपनी इक तफ़्सीर होती है
जो अपने लफ़्ज़ ख़ुद ईजाद करती है

जो ख़्वाबों से उलझती है
जो ख़्वाबों से ज़ियादा

मो'तबर होती है
लेकिन कश्फ़ का लम्हा

मसाफ़त की हज़ारों मंज़िलों के बा'द आता है
नुमूद-ए-गौहर-ए-कमयाब की साअ'त में

ख़ाली सीपियों का ढेर बे-मा'नी नहीं होता