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दुख | शाही शायरी
dukh

नज़्म

दुख

सिद्दीक़ कलीम

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इक जंगल है घनेरा गहरा
उलझी शाख़ों के रग-ओ-पै में सहमते पत्ते

हर तरफ़ दूर तलक तेज़ हवा चीख़ती है
आबशार आते हैं सदा की मानिंद

और शो'लों के समुंदर बन कर
साँप लहरें हैं ज़बाँ को खोले

एक पुर-असरार ख़मोशी की हर इक सम्त पुकार
हर तरफ़ दौर भी नज़दीक भी ऊपर नीचे

एक गम्भीर अँधेरा सहरा