दुख एक जंगल है घनेरा गहरा
उलझी शाख़ों के रग-ओ-पै में लरज़ते पत्ते
हर तरफ़ दूर तलक तेज़ हवा चीख़ती है
आबशार आते हैं शाएँ शाएँ
और शोलों के समुंदर बन कर
साँप लहरें हैं ज़बाँ खोलती हैं
इक पुर-असरार ख़मोशी की हर इक सम्त पुकार
हर तरफ़ दूर भी नज़दीक भी ऊपर नीचे
इक गम्भीर अँधेरा सहरा
नज़्म
दुख
सिद्दीक़ कलीम