EN اردو
दुकान-दार | शाही शायरी
dukan-dar

नज़्म

दुकान-दार

अदील ज़ैदी

;

ये ताजिरान-ए-दीन हैं
ख़ुदा के घर मकीन हैं

हर इक ख़ुदा के घर पे उन को अपना नाम चाहिए
ख़ुदा के नाम के एवज़ कुल इंतिज़ाम चाहिए

हर एक चाहता है ये
मिरा ख़ुदा ख़रीद लो

न कर सके ये तुम अगर
ये ताजिरान-ए-पेशा-वर

करेंगे तुम से यूँ ख़िताब
इंतिक़ाम चाहिए

मेरी किताब जो कहे
वो ही निज़ाम चाहिए

ख़ुदा के जितने रूप हैं
उन्हों ने ख़ुद बनाए हैं

हर इक ख़ुदा में साहिबो
वो सारी ख़ूबियाँ हैं जो

उन्हें बहुत अज़ीज़ हैं
हर इक दुकान पर यहाँ

नया ख़ुदा सजा हुआ
हर इक दुकान-दार की

फ़क़त यही है इल्तिजा
मिरा ख़ुदा ख़रीद लो

ख़ुदा की भी सुने कोई
वो कह रहा है बस यही

कि साहिबो मैं एक हूँ
मिरे सिवा कोई नहीं

किसी की बात मत सुनो
मिरा तो कोई घर नहीं

दिलों में बस रहा हूँ मैं
हर एक पल

हर एक साँस
तुम में जी रहा हूँ मैं

न ख़ुद तुम अपनी जान लो
कि तुम ही मेरी जान हो

जो तुम ने जान वार दी
तो मैं कहाँ बसूँगा फिर

मिरा तो कोई घर नहीं
जो बेचते हैं अपने घर

सजा के मेरे नाम पर
ये नफ़्स के असीर हैं

ये लोग बे ज़मीर हैं