(ख़ुद-कलामी)
तुम झूट और सच के दोराहे पर थे
गुज़रते लम्हों की आवाज़ ने तुम से पूछा
क्या तुम सच की राह पर चल सकते हो
तुम चुप ही रहे
गुज़रते लम्हों की आवाज़ ने तुम से पूछा
क्या तुम झूट की राह पे चल सकते हो
तुम चुप ही रहे
और ''हाँ'' के सारे लम्हे गुज़र गए
तुम जानते हो ''हाँ'' कहने के तो सारे लम्हे गुज़र गए
अब झूट और सच के दोराहे पर यूँ खड़े हुए
''नहीं'' के लम्हों को बे-कार गँवाते क्यूँ हो
नज़्म
दोराहा
सहर अंसारी