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दो साँसों की गहराई में | शाही शायरी
do sanson ki gahrai mein

नज़्म

दो साँसों की गहराई में

सलाहुद्दीन महमूद

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दो साँसों की गहराई में
जहाँ लहू

बेहद भीतर के, बिल्कुल साकित
मैदानों में

चाँद की हर रंगत बहता है
वहाँ पली

इक नंगी नारी
बेहद भीतर की रखवाली

चाँदी जैसे लहू को अपने
बदन में भी तन्हा पाती है,

शुनवाई से दूर हमेशा
शुनवाई का लब होता है

नंगी नारी
दो साँसों के बेहद भीतर

साँस के बन में
घबराती है

चाँद हमेशा से बहता है
साँस हमेशा ही जारी है

रात निगाहों के अंदर भी
बाहर भी! इक बेदारी है