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दिन का कर्ब | शाही शायरी
din ka karb

नज़्म

दिन का कर्ब

ज़ाहिदा ज़ैदी

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और फिर
सुब्ह ने लपेटे

दबीज़ ख़्वाबों के
नर्म बिस्तर

दिन की दुखती रगों में उतरे
शदीद मायूसियों के

नश्तर
सिमट के बैठे

अलम की टहनी पे
पर-बुरीदा

शिकस्ता-पा
आरज़ू के ताइर

वफ़ा के आँगन में
ना-तवाँ

ख़स्ता-हाल
उमीदों की साँस उखड़ी

और दीवार-ओ-दर पे
मँडलाये

कीना-ख़ू
नफ़रतों के दल-चर

शिकस्ता लम्हों के कारवाँ
ज़ीस्त के

शोला-बार सहरा में
कास-ए-दर्द ले के निकले

कि कोई चश्मा मिले
तो रूह की तिश्नगी मिटाएँ

वगर्ना बढ़ते रहें
आरज़ू में