वही बहार ओ ख़िज़ाँ है मुझ में भी
मुझ से बाहर भी
(आदमी से अलग नहीं हूँ)
शगूफ़े फूटें तो ख़ून में गीत बोलते हैं
कभी कभी ख़ार की खटक टीस बन के होंटों से झाँकती है
न-जाने कितने ही गीत थे जो बहार से पहले
शाख़ की रग में जी रहे थे
जड़ों का बुख़्ल उन को खा गया है
ये ख़ार, सौतेले बेटे शाख़ों के
इन तक आया नहीं है नम
फिर भी जी रहे हैं
(चमकते सूरज का सारा सच उन के बत्न में है)
तपिश की शिद्दत को पी के सूखे सड़े हुए हैं
प जी रहे हैं
मुझे ख़िज़ाँ और बहार के राबतों में जीना है
फूल का इल्तिफ़ात काँटे के तल्ख़ ताने
मिरे हवाले हैं
जड़ का नम, आफ़्ताब की तब
मिरे हुनर में ही बोलती है
मैं कितनी सतहों पे जी रहा हूँ
कभी कोई फूल मुस्कुराए
कभी कोई ख़ार दिल दुखाए
तो मुझ तक आना
ये नज़्म दोनों का माजरा है
नज़्म
Dimensions
ताबिश कमाल