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दिल्ली तिरी छाँव… | शाही शायरी
dilli teri chhanw…

नज़्म

दिल्ली तिरी छाँव…

फ़हमीदा रियाज़

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दिल्ली! तिरी छाँव बड़ी क़हरी
मिरी पूरी काया पिघल रही

मुझे गले लगा कर गली गली
धीरे से कहे'' तू कौन है री?''

मैं कौन हूँ माँ तिरी जाई हूँ
पर भेस नए से आई हूँ

मैं रमती पहुँची अपनों तक
पर प्रीत पराई लाई हूँ

तारीख़ की घोर गुफाओं में
शायद पाए पहचान मिरी

था बीज में देस का प्यार घुला
परदेस में क्या क्या बेल चढ़ी

नस नस में लहू तो तेरा है
पर आँसू मेरे अपने हैं

होंटों पर रही तिरी बोली
पर नैन में सिंध के सपने हैं

मन माटी जमुना घाट की थी
पर समझ ज़रा उस की धड़कन

इस में कारूंझर की सिसकी
इस में हो के डालता चलतन!

तिरे आँगन मीठा कुआँ हँसे
क्या फल पाए मिरा मन रोगी

इक रीत नगर से मोह मिरा
बसते हैं जहाँ प्यासे जोगी

तिरा मुझ से कोख का नाता है
मिरे मन की पीड़ा जान ज़रा

वो रूप दिखाऊँ तुझे कैसे
जिस पर सब तन मन वार दिया

क्या गीत हैं वो कोह-यारों के
क्या घाइल उन की बानी है

क्या लाज रंगी वो फटी चादर
जो थर्की तपत ने तानी है

वो घाव घाव तन उन के
पर नस नस में अग्नी दहकी

वो बाट घिरी संगीनों से
और झपट शिकारी कुत्तों की

हैं जिन के हाथ पर अँगारे
मैं उन बंजारों की चीरी

माँ उन के आगे कोस कड़े
और सर पे कड़कती दो-पहरी

मैं बंदी बाँधूँ की बांदी
वो बंदी-ख़ाने तोड़ेंगे

है जिन हाथों में हाथ दिया
सो सारी सलाख़ें मोड़ेंगे

तू सदा सुहागन हो माँ री!
मुझे अपनी तोड़ निभाना है

री दिल्ली छू कर चरण तिरे
मुझ को वापस मुड़ जाना है