दिल साफ़ी ये हो ऐ 'मेहर' ख़ुदा की रहमत
मैं ने महसूस किया है बहुत आराम यहाँ
गोशा-ए-आफ़त उस को कहीं तो ज़ेबा है
कैसी तस्कीन का है कैसे सुकूँ का ये मकाँ
इस तरह शहर से कुछ दूर कोई मा'बद हो
शारा-ए-आम से हट कर कि न हो भीड़ वहाँ
कोई जाए भी जो उस जा तो इरादा कर के
ये न हो हर कस-ओ-ना-कस हो वहाँ गश्त-कुनाँ
जाए तन्हा हो मकाँ गोशा-ए-उज़्लत सा हो
जिस तरफ़ देखो नज़र आए ख़मोशी का समाँ
साया-ए-अफ़्गन हूँ कुहन साल दरख़्त उस जा पर
ऐसी ठंडक हो कि बस आए वहाँ जान में जान
सहन में आब-ए-मुसफ़्फ़ा पड़ा हौज़ भी हो
और वो ऐसा मस्कन कि न हो जिस का बयाँ
गिरह में हूँ रौशें बेश-बहा पत्थर की
साफ़ ऐसी कि न रतनका भी नज़र आए वहाँ
सामने आँख के मा'बद का हो बुर्ज-ए-संगीं
जिस की ता'मीर को बरसों हुए हों या सदियाँ
ग़रज़ ऐसा हो मकाँ और तो वाँ बैठा हो
और ख़मोशी ओ सुकूँ चार तरफ़ से हो अयाँ
तू वहाँ बैठा हो आराम से और तेरे सिवा
आदमी-ज़ाद का ढूँढे न नज़र आए निशाँ
देख कर आँख में नूर तबीअ'त में सुरूर
तो ये समझे कि ज़मीं पर है यही बाग़-ए-जिनाँ
है यही हाल जो देखो तो दिल साफ़ी का
वही तस्कीन-ओ-सुकूँ और वही राहत है यहाँ
वही ठंडक है वही नूर-ओ-सुरूर-ओ-मोफूज़
है यहाँ भी वही तस्कीन-ओ-ख़मोशी का समाँ
मैं यहाँ बैठ के ऐ 'मेहर' मज़े लेता हूँ
और समझता हूँ ज़मीं पर है यही बाग़-ए-जिनाँ

नज़्म
दिल साफ़ी
सूरज नारायण मेहर