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दिल | शाही शायरी
dil

नज़्म

दिल

जावेद अख़्तर

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दिल वो सहरा था
कि जिस सहरा में

हसरतें
रेत के टीलों की तरह रहती थीं

जब हवादिस की हवा
उन को मिटाने के लिए

चलती थी
यहाँ मिटती थीं

कहीं और उभर आती थीं
शक्ल खोते ही

नई शक्ल में ढल जाती थीं
दिल के सहरा पे मगर अब की बार

सानेहा गुज़रा कुछ ऐसा
कि सुनाए न बने

आँधी वो आई कि सारे टीले
ऐसे बिखरे

कि कहीं और उभर ही न सके
यूँ मिटे हैं

कि कहीं और बनाए न बने
अब कहीं

टीले नहीं
रेत नहीं

रेत का ज़र्रा नहीं
दिल में अब कुछ नहीं

दिल को सहरा भी अगर कहिए
तो कैसे कहिए