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दीवारें | शाही शायरी
diwaren

नज़्म

दीवारें

वज़ीर आग़ा

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सदियों गुंग रहीं दीवारें
और फिर इक शब जाने कैसे

दीवारों पर लफ़्ज़ों के अंगारे चमके
अँगारों ने मिल-जुल कर शो'ले भड़काए

सारे शहर में आग लगी
काग़ज़ के मल्बूस जले

काले नंगे जिस्मों से बाज़ार भरे
आवाज़ों के झक्कड़ आए बादल चीख़ा

आँगन के बे-दाग़ बदन पर
जली हुई हड्डियों के ओले

पत्थर बन कर बरस पड़े
अगले दिन जब उजली धूप पिघलने आई

सब ने देखा
दीवारों के लब नीले थे

सब नंगी थीं
घटते बढ़ते सायों की गूँगी भाषा में

बोल रही थीं