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दीवारें | शाही शायरी
diwaren

नज़्म

दीवारें

बलराज कोमल

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कहते हैं सब लोग
होते हैं

दीवारों के कान
कमरों की तन्हाई में

सरगोशी में क्या क्या बातें करते हैं
छुप छुप कर जब लोग

दीवारें सब सुन लेती हैं
सुन लेते हैं लोग

दीवारों की आँख भी होती है
कितना अच्छा होता

आँख है कान से बेहतर शायद
कमरे का हो या फिर चलती राहगुज़र का

नज़्ज़ारा तो नज़्ज़ारा है
मंज़र आख़िर मंज़र है

क्या क्या करते लोग
देखा करते लोग

दीवारों के बाहर से
तारीकी में दीवारों की जानिब जब भी क़दम उठाते

लम्हा-भर को मुमकिन है
सोचा करते लोग