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दीवार-ए-गिर्या | शाही शायरी
diwar-e-girya

नज़्म

दीवार-ए-गिर्या

वज़ीर आग़ा

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अजब जादू भरी आँखें थीं उस की
वो जब पलकें उठा कर इक नज़र तकती तो आँखों की

सियह झीलों में
जैसे मछलियों को आग लग जाती

हज़ारों सुर्ख़ डोरे तिलमिला कर जस्त भरते
आब-ए-ग़म की क़ैद से बाहर निकलने के लिए

सौ सौ जतन करते
मगर मजबूर थे

चारों तरफ़ आँसू के गुम्बद थे
नमी के बुलबुले थे

और इक दीवार-ए-गिर्या
जो अज़ल से ता-अबद फैली हुई थी

अजब जादू भरी आँखें थीं उस की
ब-ज़ाहिर आने वाले को न आने के लिए कहती

ब-बातिन चाहती दीवार को वो तोड़ कर उस तक पहुँच जाएँ
खड़ा हूँ मैं पस-ए-दीवार-ए-गिर्या

नमी के बुलबुलों को इस की पलकों पर लरज़ते झिलमिलाते
देखता हूँ उँगलियों से छू भी सकता हूँ

मगर दीवार-ए-गिर्या को
उफ़ुक़ से ता उफ़ुक़ फैली हुई

शीशे की इस शफ़्फ़ाफ़ चादर को कभी अब तक तो कोई तोड़ कर आगे नहीं आया
मैं इक आँसू भरे लम्हे की सिलवट

मैं कैसे पार कर सकता हूँ इस को