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दीवार-ए-गिर्या | शाही शायरी
diwar-e-girya

नज़्म

दीवार-ए-गिर्या

इशरत आफ़रीं

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वक़्त की भटकी हुई अर्वाह का नौहा हूँ मैं
रेत की अलवाह पर कुंदा कोई मदफ़ून दिन

मदक़ूक़ दिन
बे-सराहत ख़्वाब की तफ़्हीम में

हैरान ओ सरगर्दां हूँ मैं
अपने अंदर

इक अज़ा-ख़ाना सजाने की तग-ओ-दौ
रोज़ इक दीवार-ए-गिर्या को उठाने की मशक़्क़त

और पस-ए-दीवार जाने की तग-ओ-दौ