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दीवार-ए-गिर्या | शाही शायरी
diwar-e-girya

नज़्म

दीवार-ए-गिर्या

अहमद फ़राज़

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वो कैसा शोबदा-गर था
जो मसनूई सितारों

और नक़ली सूरजों की
इक झलक दिखला के

मेरे सादा दिल लोगों
की आँखों के दिए

होंटों के जुगनू
ले गया

और अब ये आलम है
कि मेरे शहर का

हर इक मकाँ
इक ग़ार की मानिंद

महरूम-ए-नवा है
और हँसता बोलता हर शख़्स

इक दीवार-ए-गिर्या है