तुम मिरे कोई नहीं
और ये नन्ही सी जाँ
कौन है? कोई नहीं
मैं भी तुम दोनों को शायद
अजनबी लगता हूँ शायद कुछ नहीं
ऐन-मुमकिन है कि रोज़-ए-हश्र के इम्कान से ही क़ब्ल हम
अपने अपने रास्तों पर
रोज़ ओ शब चलते हुए
रेग-ए-ना-मालूम के तूफ़ान में
ऐसे बिछ्ड़ें
फिर कभी न मिल सकें
ये जो लम्हा बख़्त में लिक्खा है हम सब के ख़ुदा ने
क़ुर्ब का, रंग-ए-तमाज़त का, लहू के रंग का
काश उस लम्हे में हम
बंद कर लें अपनी आँखों में हसीं चेहरे शगूफ़े
क़हक़हे, रौशन सितारे
लहलहाते जिस्म
मौज-ए-बर्क़ शोलों का तमव्वुज
मौत के, तख़्लीक़ के असरार सब
ख़ाना-ए-मौजूद उन सब के लिए
अब हमारे दीदा-ए-तर के सिवा कुछ भी नहीं
रस्म-ए-रुख़्सत भी कभी होगी मगर
लम्हा-ए-बेनाम की तहवील में
घर, ये सच है, मुख़्तसर है
इस फ़ना-अंजाम जलते मुख़्तसर घर के सिवा कुछ भी नहीं
नज़्म
दीदा-ए-तर
बलराज कोमल