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धूप छाँव के दरमियाँ | शाही शायरी
dhup chhanw ke darmiyan

नज़्म

धूप छाँव के दरमियाँ

अरशद कमाल

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ये ज़िंदगी
गुलों की एक सेज है

न ख़ार-ओ-ख़स का ढेर है
बस एक इम्तिहान का

लतीफ़ सा सवाल है
सवाल का जवाब तो मुहाल है

बस इतना ही समझ लें हम
कि ज़ीस्त धूप छाँव है

कहीं पे ये नशेब तो कहीं पे ये फ़राज़ है
जहाँ बिठाए ये हमें

वहीं पे हम बिसात-ए-ज़ात डाल कर
किरन किरन से

कुछ न कुछ हरारतें निचोड़ लें
तमाज़तें समेट लें कुछ इस तरह

कि छाँव की इनायतों बशारतों
का इक यक़ीं भी साथ हो!