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धूप-भरी अजरक | शाही शायरी
dhup-bhari ajrak

नज़्म

धूप-भरी अजरक

असग़र नदीम सय्यद

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उस ने मुझे धूप-भरी अजरक पेश की
मैं ने उस धूप को अपनी ज़मीन पर रखा

कपास और खजूर उगाई
खजूर से शराब और कपास से अपनी महबूबा के लिए

महीन मलमल काती
मलमल ने उस के बदन को छुआ

उस पर फूल निकल आए
शराब को ज़मीन में दबाया

उस पर ताड़ के दरख़्त उग आए
इस ने मुझे धूप-भरी अजरक पेश की

मैं ने उस धूप को अपने दिल पर रखा
जो सरसों का फूल बन गई

उस फूल से एक मौसम पैदा हुआ
जिस का नाम मैं ने इश्क़ और सख़ावत का मौसम रख दिया

उस मौसम के बीज से एक रास्ता
उस के घर की तरफ़ निकला

उस बीज से पाँच कबूतर निकले
भरी हुई गागर वाले फ़क़ीर के रौज़े पर जा कर बैठ गए

उस ने मुझे धूप से भरी अजरक पेश की
मैं ने उसे तुम्हारे घर के ज़ीने पर फैला दिया

ताकि तुम धूप की सीढ़ियों से मेरे दिल में उतर सको
मुझे याद है कभी न कभी कहीं न कहीं

मेरा सितारा तुम्हारे सितारे के क़रीब से गुज़रा है
उस ने मुझे धूप-भरी अजरक पेश की

मैं ने उसे समुंदर में फैला दिया
हवा ने उस का रस चूसा

और मदहोश हो कर बादबानों से लिपट गई
समुंदर के अंदर एक और समुंदर नींद से जागा

दोनों एक दूसरे के ख़रोश में
देर तक इस धूप में आँखें मूँदे लेटे रहे

इस ने मुझे धूप-भरी अजरक पेश की
फिर मैं ने वो अजरक शहबाज़ क़लंदर के एक

फ़क़ीर को दे दी
उस ने मुझे दुआ का एक बादल दिया

मैं जिसे अपने सर पर लिए फिरता हूँ