खिड़की के शीशे से छन कर
कमरे में आ जाती है
मेज़ की तस्वीरों को अपने
हाथों से चमकाती है
सारी किताबों के चेहरों को
उजला करती जाती है
फिर मेरे बिस्तर से मुझ को
उठने पर उकसाती है
मैं रोज़ अपने ख़्वाब अधूरे
छोड़ के बाहर जाता हूँ!
नज़्म
धूप
आफ़ताब शम्सी