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धुँद के पार | शाही शायरी
dhund ke par

नज़्म

धुँद के पार

मैमूना अब्बास ख़ान

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धुँद के परे इक दिन
रौशनी के हाले में

वो मुझे नज़र आया
जैसे देवता कोई

मुंतज़िर हो दासी का
मैं ने रू-ब-रू हो कर

उस से इल्तिजा की थी
दोगे रौशनी अपनी मुस्तआ'र लेनी है

हर तरफ़ अंधेरा है
मेज़बानी करनी है

कुछ ख़राब हालों की
रूह की कसाफ़त का

दिल पे बोझ है जिन के
चंद ज़ख़्म ऐसे हैं

जो कि भर न पाएँगे
गर नहीं मिले उन को

रौशनी के ये हाले
मेरी बात सुन कर वो

मुस्कुरा के बोला था
बे-नियाज़ शहज़ादी

जान क्यूँ नहीं लेतीं
रौशनी का रौज़न तो

सिर्फ़ तुम से खुलता है
धुँदलाता हर मंज़र

इस लिए तो वाज़ेह है
झिलमिलाती ये किरनें

तुम से ही तो फूटी हैं
ख़ुद को जोड़ लो ख़ुद से

रौशनी तो तुम से है