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धरती का बोझ | शाही शायरी
dharti ka bojh

नज़्म

धरती का बोझ

बाक़र मेहदी

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एक चहल-क़दमी के लिए गली बनी
समुंदर के पास ये फूलों की कली बनी

में भी भूले से यहाँ आ जाता हूँ
मेरी उम्र चलने-फिरने घूमने की नहीं है

औरतें बच्चे और दो इक बूढ़े भी आते हैं
मैं यूँही कछवे की चाल की तरह

आहिस्ता आहिस्ता आया था
इक झाड़ी के पीछे दो साए हम-आग़ोश थे

एक ने बा-आवाज़-ए-बुलंद कहा:
क्या तुम ने इस बूढ़े को देखा?

हँसने की आवाज़ आई
ये बूढ़ा धरती का बोझ है

मैं ने सुना मगर चुप-चाप चलता गया
उस ने शायद सही कहा ये उम्र चलने-फिरने की नहीं है

मगर मैं क्या करूँ डॉक्टर ने मुझे सौ क़दम चलने को कहा है
मैं शुरूअ से ज़िंदगी में धरती का बोझ था

मैं ने जवानी किर्म-ए-किताबी बन के गुज़ारी है
मैं ने रातों को जाग जाग कर पढ़ा है

ज़िंदगी में इल्म की जुस्तुजू सब कुछ नहीं है
ये मुझे तब मालूम हुआ जब मैं धरती का बोझ बन गया था