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देर-सवेर तो हो जाती है | शाही शायरी
der-sawer to ho jati hai

नज़्म

देर-सवेर तो हो जाती है

अलमास शबी

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दरवाज़े पे जो आँखें हैं
आँखों में जो सपने हैं

उन सपनों में जो मूरत है
वो मेरी है

दरवाज़े के बाहर क्या है
इक रस्ता है

जिस पर मेरी यादों का शहर बसा है
मेरा रस्ता देखने वाली उन आँखों का जाल बिछा है

मुझे पता है
लेकिन उन आँखों को कैसे मैं ये बात बताऊँ

हर रस्ते पे इतनी भीड़ चलना मुश्किल हो जाता है
आवाज़ों के इस जंगल से बचना मुश्किल हो जाता है

दुख का ऐसा लम्हा आता है हँसना मुश्किल हो जाता है
जब ऐसे हालात खड़े हों

क़दमों में ज़ंजीर की सूरत
रौशनियों के साए पड़े हों

ऐसे में दिल उन आँखों से
एक ही बात कहे जाता है

देर-सवेर तो हो जाती है