आलम-पनाह 
ख़ैर से बेदार हो गए 
आलम-पनाह!.... 
ख़ैर..... 
कहाँ आप चल दिए 
रस्ते तमाम बंद हुए 
देर हो गई 
और कैसी दोपहर में 
घनी रात हो गई 
फ़ानूस 
झाड़ 
क़ुमक़ुमे रौशन नहीं हुए 
और ताक़चों में बाक़ी नहीं कोई भी चराग़ 
और बेगमात हुजरे से बाहर निकल पड़ीं 
और शाहज़ादियों के सरों पर नहीं रिदा 
ये रंग-ओ-रूप 
ये क़द-ओ-क़ामत 
ये चश्म ओ गोश 
क्या रास्ते में फ़र्श बिछाने को कोई है 
कोई कनीज़ कोई भी ख़ादिम नहीं रहा? 
शीरीनी-ए-लताफ़त-ओ-आराइश-ए-हयात 
और क्या हुए वो नाज़-ओ-नज़ाकत के शाहकार 
दीवार पर है आयत-ऊल-कुर्सी का चौखटा 
जुज़दान ओ जा-नमाज़ मसहरी के पास है 
आँखें उठा के देखने वाला कोई नहीं 
पहनाए आ के आप को पा-पोश कौन अब 
मसनद-नशीं जो आप हों ये वक़्त वो नहीं 
ये वक़्त है अजीब 
कि मुश्किल बड़ी है ये 
शोअरा 
मुसाहिबीन 
असा-दार ओ ख़ासा-दार 
मीर-ए-सिपह 
ग़ुलाम भी बाक़ी नहीं रहे 
जो जंग होने वाली थी आग़ाज़ हो चुकी 
जो रात ढलने वाली थी 
कब की वो ढल चुकी 
शाही-महल के पार तो दुनिया बदल गई 
और अस्प-ए-शाह-गाम तो सब जाट ले गए 
आलम-पनाह 
शहर तो बर्बाद गया
        नज़्म
देर हो गई
फ़हीम शनास काज़मी

