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कैनवस कोई सादा नहीं | शाही शायरी
canwas koi sada nahin

नज़्म

कैनवस कोई सादा नहीं

ज़हीर सिद्दीक़ी

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टूटती रेज़ा रेज़ा सिमटती हुई साअ'तों की
कोई सत्ह-ए-सादा नहीं

एक वक़्फ़ा का दामन भी धब्बों से ख़ाली नहीं
ये नज़र का नहीं

अस्ल में इक तज़ाद-ए-नज़र का करिश्मा है
वर्ना ये औराक़-ए-महताब भी

जितने लगते हैं उजले नहीं
मुँह खुली और लड़की हुई रात से

लम्हा लम्हा भबकती हुई रौशनाई
बहुत तेज़ है

रात के कोएले
जब शुरूआ'त तक़रीब के धीमे धीमे सुलगते अलाव में

जलने लगें उस घड़ी
और जब बीच के मरहले में दहकने लगें उस घड़ी

और जब ख़त्म तक़रीब की राख में आँख मिलने लगें
इस घड़ी भी सफ़ेदी का ख़ालिस तसव्वुर नहीं

अपनी मर्ज़ी की बे-दाग़ तस्वीर के वास्ते
कैनवस कोई सादा नहीं