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दस्तरस | शाही शायरी
dastaras

नज़्म

दस्तरस

अम्बरीन सलाहुद्दीन

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उभरती है मिरे माथे की सिलवट में
शिकन धागे के खिंचने की

उधेड़े जा रही हूँ
मैं भी दिन-भर से

मुझे जब याद आता है
कि मैं कितना उलझती थी

मिरी नानी हर इक कपड़े को
चाहे वो नया ही क्यूँ न हो

इक बार कम से कम
न जब तक अपने हाथों से उधेड़ें

और सी लें
तब तलक उन को सुकूँ आता न था

मैं अक्सर सोचती थी
नक़्स क्या होता है आख़िर

हर नए जोड़े के सिलने में
भला धागे के पीछे छुप के आख़िर

कौन से ऐसे मसाइल हैं
जिन्हें मैं फिर उधेड़े जा रही हूँ

और अपने हाथ से फिर से सिलाई कर के
अपने तौर अपने ढब से

इस कपड़े में
कैसे रंग भरती जा रही हूँ

इस तरह कुछ पल सफ़र तो
मेरी अपनी ज़ात के हमराह तय पाया

मुझे उस पल में ख़ुद में
मेरी माँ नानी मिरी दादी

हर इक चेहरा नज़र आया