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दस्तक | शाही शायरी
dastak

नज़्म

दस्तक

रफ़ीक़ ख़याल

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हालात के काले बादल ने
मिरे छत के चाँद को घेर लिया

तदबीर हो मुमकिन ख़ाक कोई
कि बाहर रक़्साँ तारीकी

और अंदर फैली तन्हाई
दरवाज़े पर दस्तक दे कर

आलाम की वहशत हँसती है
और सरगोशी में कहती है

कि अब कैसे बच पाओगे
मेरी तिश्ना बेबाकी से

किस से बातें कर के मुझ को
अब तुम धोके में रक्खोगे