सुब्ह सुब्ह इक ख़्वाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला' देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आँखों से मानूस थे सारे
चेहरे सारे सुने सुनाए
पाँव धोए, हाथ धुलाए
आँगन में आसन लगवाए
और तन्नूर पे मक्की के कुछ मोटे मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मिरे
पिछले सालों की फ़सलों का गुड़ लाए थे
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाथ लगा कर देखा तो तन्नूर अभी तक बुझा नहीं था
और होंटों पर मीठे गुड़ का ज़ाइक़ा अब तक चिपक रहा था
ख़्वाब था शायद!
ख़्वाब ही होगा!!
सरहद पर कल रात, सुना है चली, थी गोली
सरहद पर कल रात, सुना है
कुछ ख़्वाबों का ख़ून हुआ था,
नज़्म
दस्तक
गुलज़ार