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दश्त-ए-तख़य्युल की नफ़ी | शाही शायरी
dasht-e-taKHayyul ki nafi

नज़्म

दश्त-ए-तख़य्युल की नफ़ी

कौसर मज़हरी

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मुझे दश्त-ए-तख़य्युल का सफ़र करना अगर आता
तवाफ़-ए-काबा करता, ज़िंदगी को सम्त मिल जाती

सहीफ़े दिल के सब बिखरे हुए मेरे सँवर जाते
ग़म-ओ-आलाम मेरे भी,

ग़ुबार-ए-राह बन जाते
मुझे दश्त-ए-तख़य्युल का सफ़र करना अगर आता

तज़ादात अब जो पैदा हैं, वो पैदा ही नहीं होते
कहीं कुंज-ए-सुकूँ मिस्ल-ए-मदीना मुझ को मिल जाता

मुझे दश्त-ए-तख़य्युल का सफ़र करना अगर आता
जिन्हें दश्त-ए-तख़य्युल का सफ़र करना भी आता है

हवा के दोश पर उड़ते हैं मिस्ल-ए-गर्द-ए-आवारा
गिद्धों का झुण्ड कि मंडला रहा हो जैसे मुर्दों पर

मुझे दश्त-ए-तख़य्युल का सफ़र करना नहीं आता
नहीं आता तो अच्छा है, नहीं आए तो अच्छा है