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दरयूज़ा-गरी | शाही शायरी
daryuza-gari

नज़्म

दरयूज़ा-गरी

हमीद अलमास

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नीलगूँ चर्ख़ को घेरे हुए भूरे बादल
इस तरह घूमते फिरते हैं हवा के रुख़ पर

जैसे ये सल्तनत-ए-आब के शहज़ादे हों
जिन के इक हुक्म से हो जाए ज़मीं लाला-फ़रोश

देखना ये है कि कब आस की कोंपल फूटे
सूखी जाती है तमन्नाओं की खेती अपनी