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डरो उस वक़्त से | शाही शायरी
Daro us waqt se

नज़्म

डरो उस वक़्त से

ज़ेहरा निगाह

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हर तरफ़ दौर-ए-फ़रामोशी है
ज़ेहन सहमा हुआ बैठा है कहीं

अपने अतराफ़ हिफ़ाज़त की तनाबें गाड़े
जब कोई बात नहीं याद उस को

फिर ये दहशत का सबब क्या मअनी
और हिफ़ाज़त का जुनूँ कैसा है

डरो उस वक़्त से जब ऐसा ख़ौफ़
जिस के अस्बाब नहीं मिलते हैं

ज़िंदगानी में चला आता है
रूह-ए-विज्दान भटक जाती है

तर्ज़-ए-अफ़्कार बदल जाती है
सहरा आ जाते हैं दीवारों में

आसमानों के वरक़ खुलते हैं
जौक़-दर-जौक़ परे रूहों के

चलते-फिरते नज़र आ जाते हैं
और ज़मीं काँच के टुकड़ों की तरह टूटती है

वहम तस्वीर में ढल जाता है
कम-निगाही का तसल्लुत चुप-चाप

दूर-अँदेशी को खा जाता है
डरो उस वक़्त से जब ऐसा ख़ौफ़

ज़िंदगानी में चला आता है
जिस के अस्बाब नहीं मिलते हैं