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दरमाँदा | शाही शायरी
darmanda

नज़्म

दरमाँदा

वज़ीर आग़ा

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रस भरा लम्हा
न जाने किन कठिन राहों से हो कर

आज मेरे तन के इस अंधे नगर में
एक पल मेहमाँ हुआ

रस भरा लम्हा
समय की शाख़ से टूटा

मेरी फैली हुई झोली में गिर कर
आज मेरा हो गया

यक-ब-यक
क़रनों के ठहरे कारवाँ ने झुरझुरी ली चल पड़ा

रस भरे लम्हे का महमिल
ऊंटनी की पुश्त पर मचला

सुनहरी घंटियों ने चीख़ कर मुझ से कहा
तू रह गया