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दर्द की आवाज़ | शाही शायरी
dard ki aawaz

नज़्म

दर्द की आवाज़

उज़ैर रहमान

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उड़ती देश में गर्द नहीं है
तुम्हें ज़रा भी दर्द नहीं है

देश है अपना मानते हो ना
दुख जितने हैं जानते हो ना

पेड़ है एक पर डालें बहुत हैं
डालों पर टहनियाँ बहुत हैं

पत्ते हैं रोज़ाना उगते
पीले लेकिन गिरते रहते

तुम हो माली नज़र कहाँ है
चमन की सोचो ध्यान कहाँ है

क्या तुम से हर फ़र्द नहीं है
तुम्हें ज़रा भी दर्द नहीं है

चुना तुम्हें है कहेंगे क़िस्से
देश दिखे जब हिस्से हिस्से

लोग परेशाँ आग ज़नी है
और विचारों में भी ठनी है

नज़रें चुरा कर यूँ ना बैठो
आगे आ कर चक्र तो फेंको

तुम चुप हो सब बोल रहे हैं
पँख वो अपने तोल रहे हैं

कहे न कोई मर्द नहीं है
तुम्हें ज़रा भी दर्द नहीं है

बड़े भाई हो सबक़ तो सीखो
चारों ओर हैं छोटे देखो

लड़ लड़ कर बर्बाद हैं सारे
काटना मारना धर्म बना रे

वहाँ मस्जिदों में बम फटते
धर्म है एक वो फिर भी लड़ते

चले थे फ़ख़्र से सर ऊँचा था
गढ़े थे हाएल कब देखा था

आज हुए क्या देख रहे हो
चक्कर गिध के देख रहे हो

अरे क्यूँ चेहरा ज़र्द नहीं है
तुम्हें ज़रा भी दर्द नहीं है

होश में आओ वक़्त अभी है
रहबर हो और समय यही है

जीत चुनाव फ़िक्र सही है
पर हो क्या गर देश नहीं है

दूर देखना जुर्म कहाँ है
सीखने में कोई शर्म कहाँ है

बड़े हो गर तो बन के दिखाओ
कहाँ है शफ़क़त ले कर आओ

धर्म कभी बेदर्द नहीं है
तुम्हें ज़रा भी दर्द नहीं है

आज नहीं तो कल समझोगे
लुट जाओगे तब समझोगे

प्यार से बढ़ कर अस्त्र नहीं कुछ
घटिया झूट से वस्त्र नहीं कुछ

बोया जो है वही काटोगे
फिर उन के तलवे चाटोगे

हाथों में कश्कोल रहेंगे
गले में अपने ढोल रहेंगे

फिर सर ऊँचा करते रहना
बन जाना फिर देश का गहना

जागो हवा अभी सर्द नहीं है
तुम्हें ज़रा भी दर्द नहीं है