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दर्द | शाही शायरी
dard

नज़्म

दर्द

गुलनाज़ कौसर

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सरसराहट है
न आहट है

न हलचल
न चुभन

दर्द चुप-चाप
किसी धीमी नदी की सूरत

साँस लेती हुई
गांठों में

उतर आया है
कितने बरसों की

रियाज़त से
हुनर-मंदी से

ऐसे बिखरे हुए
रेशों को समेटा है मगर

और हर बार
हर इक बार

बहुत जतनों से
जिस्म को जान से

जोड़ा है मगर
बे-सबब साँस की कटती डोरी

कब से थामे हुए
बैठे हैं मगर

आज नहीं
या कहीं दर्द थमे

और सकूँ मिल जाए
या कोई गाँठ खुले

और क़रार आ जाए