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दरख़्त मेरे दोस्त | शाही शायरी
daraKHt mere dost

नज़्म

दरख़्त मेरे दोस्त

सरवत हुसैन

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दरख़्त! मेरे दोस्त
तुम मिल जाते हो किसी न किसी मोड़ पर

और आसान कर देते हो सफ़र
तुम्हारे पैर की उँगलियाँ

जमी रहीं पाताल के भेदों पर
क़ाएम रहे मेरे दोस्त

तुम्हारे तने की मतानत और क़ुव्वत
धूप और बारिश तुम्हें अपने तोहफ़ों से नवाज़ती रहे

तुम बहुत पुर-वक़ार और सादा हो
मेरे थैले को जानना चाहते हो

ज़रूर.... ये लो मैं इसे खोलता हूँ
रोटियाँ दुआएँ और नज़्में

मेरे पास इस से ज़ियादा कुछ नहीं
एक शायर के पास इस से ज़ियादा कुछ नहीं होता

दोस्त दुख देना तुम ने सीखा ही नहीं
तुम ने न तो मुझ से शायरी का मतलब पूछा

और न कभी मेरे मुतालेए पर शक किया
ऐसा ही होना चाहिए दोस्तों को

अगर मेरे पास इक और ज़िंदगी होती तो
तो मैं अपनी पहली ज़िंदगी तुम्हारी जड़ों पर गुज़ार देता

मगर मैं घर से ख़ानदान भर ख़ुशियों के लिए निकला हूँ
और वहाँ मेरा इंतिज़ार किया जा रहा है

तुम ने मेरे दोस्त
हाँ तुम ने

बहुत कुछ सिखाया है मुझे
मसलन ज़मीन और आसमानी बिजली

और हवा
और इंतिज़ार

और दूसरों के लिए ज़िंदा रहना
बहुत क़ीमती हैं ये बातें

मैं क्या दे सकता हूँ इस फ़य्याज़ी का जवाब
मेरे पास तुम्हारे लिए

एक रोटी और दुआ है
रोटी: तुम्हारी चियूँटियों के लिए

दुआ तुम्हारे आख़िरी दिन के लिए
मुझे मालूम है तुम ने कुल्हाड़ी के मुसाफ़हे

और आरी की हँसी से कभी ख़ौफ़ नहीं खाया
मगर तुम रोक नहीं सकते इन्हें

कोई भी नहीं रोक सकता
ख़ुदा करे

ख़ुदा करे तुम्हारी शाख़ों से एक झोंपड़ी बनाई जाए
बाज़ुओं के घेरे में न आने वाले तुम्हारे

तने की लकड़ी
बहुत काफ़ी है

दो पहियों और एक कश्ती के लिए
दोस्त: हम फिर मिलेंगे

मुसाफ़िर और छकड़ा
मुसाफ़िर और कश्ती

कहीं न कहीं हम फिर एक साथ होंगे
कहीं न कहीं

एक साथ.... हम सामना करेंगे
हवा का और रास्तों का

मसर्रत और मौत का....