मिरा ज़ेहन बनता चला जा रहा है ख़यालात-ए-फ़ासिद की दलदल
कि महसूस होने लगा है
मिरी ज़िंदगी में रहेगी हमेशा हवस कार-फ़रमा
हो सरमा कि गरमा
कभी प्यास बुझती नहीं है
पियूँ जितनी मय
फ़ुसून-ए-मुलाक़ात है बाइस-ए-बे-क़रारी
जुनून-ए-मुलाक़ात रहता है तारी
कि अक्सर मुलाक़ात होती है लेकिन मुलाक़ात को जी तरसता है पैहम
कई बार इस कैफ़ियत पर हँसा हूँ
है ये कैसी दलदल कि जिस में फँसा हूँ
उभरता हूँ मैं इस की गहराई से भी
मगर जैसे फिर डूब जाने की ख़ातिर
ग़ज़ब है हवस का ये कस-बल
मिरा ज़ेहन बनता चला जा रहा है ख़यालात-ए-फ़ासिद की दलदल
नज़्म
दलदल
कृष्ण मोहन