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दहकती हुई याद | शाही शायरी
dahakti hui yaad

नज़्म

दहकती हुई याद

मुस्तफ़ा अरबाब

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मेरे बदन से टकराती है
उस का लम्स

मुझे पागल सा बना देता है
मैं चीख़ पड़ता हूँ

गोश्त जलने की बू
फ़ज़ा में फैलने लगती है

मेरी आँखों में
रहने वाले आँसुओं में

एक छनाके के साथ
दहकती हुई याद

सर्द होने लगती है
मैं

आस-पास के मंज़र-नामे को देखता हूँ
जो बदला हुआ होता है

मैं सर्द पड़ने वाली याद को
भट्टी में रखता हूँ

और दोबारा
धोंकनी चिल्लाने लगता हूँ