मुझे ज़लज़ला-ज़दा इलाक़े से उठाया गया था
या शायद
सैलाब-ज़दा इलाक़े से
मगर मेरा कोई वारिस अब इस दुनिया में बाक़ी नहीं है
मेरी कम-उम्री
मेरी वाहिद कफ़ील है
और
अच्छी शक्ल ही अब मेरी ज़िंदगी की ज़ामिन है
मेरी बे-लिबासी
लिबास से ज़ियादा क़ीमती और बा-मअ'नी है
मैं ने कई बार
अदालतों में पेशी के दौरान अपने बे-आसरा होने की
दुहाई दी
मगर हर बार
मेरे अंगूठे पर ख़ामुशी की सियाही लगा दी गई
मुझे उन मर्दों के नाम याद नहीं
जो
मुझे शहर शहर और गाँव गाँव लिए फिरे
मगर मुझे
उस औरत की आँखें याद हैं
जिस ने मुझे देख कर आँसू बहाए थे
और
फिर यहाँ छोड़ कर चुप-चाप चली गई थी!
नज़्म
दार-उल-अमान के दरवाज़े पर
ज़ाहिद मसूद