है अब तक सेहर सा छाया तिरी जादू-नवाई का
दिल-ए-उर्दू पे अब तक दाग़ है तेरी जुदाई का
ज़बान-ए-शेर से अब भी तिरी आवाज़ सुनता हूँ
जो निकला था तिरी मिज़राब से वो साज़ सुनता हूँ
तग़ज़्ज़ुल को तिरी रंगीं नवाएँ याद हैं अब तक
तिरे नग़्मों से दिल की बस्तियाँ आबाद हैं अब तक
दिलों को अब भी चमकाती है शम-ए-आरज़ू तेरी
लब-ए-तहरीर पर अब तक है शीरीं गुफ़्तुगू तेरी
तिरे जज़्बात में अब तक सदाक़त जगमगाती है
तिरी गुफ़्तार की शोख़ी दिलों को गुदगुदाती है
नियाज़-ओ-नाज़ की महफ़िल में तेरा नाम रहता है
तिरे मस्तों के आगे अब भी तेरा जाम रहता है
तिरी रंगीनियों में सादगी की शान होती है
तिरे अफ़्कार की दुनिया भी शे'रिसतान होती थी
तिरे नग़्मे सुकूँ-परवर थे अरबाब-ए-मोहब्बत के
सदा बे-दाग़ देखा है तिरे दामान-ए-फ़ितरत
छलकती थीं तिरे दिल की अदाएँ भी निगाहों से
बला का दर्द होता था तिरी ख़ामोश आहों में
तू बंदा था मोहब्बत का मोहब्बत थी तिरे दिल में
समुंदर मौजज़न रहता था इस छोटे से साहिल में
तिरे लब पर वही आता था जो हर दिल में होता था
वो बन जाता था शाइ'र जो तिरी महफ़िल में होता था
फ़सीह-उल-मुल्क था जान-ए-फ़साहत तेरी बातें थीं
क़यामत जिस पे दम दे वो क़यामत तेरी बातें थीं
तिरी गुफ़्तार में हम ने मज़ाक़-ए-ज़िंदगी देखा
तिरे साज़ों में दिल के सोज़ का मफ़्हूम था गोया
तिरी हस्ती को राज़-ए-दो-जहाँ मा'लूम था गोया
फ़रिश्तों का तक़द्दुस था तिरे हुस्न-ए-तकल्लुम में
तिरे आँसू में सोज़-ए-दिल था या शो'ला था शबनम में
ज़बाँ को हूर-ओ-ग़िल्माँ ने तिरी कौसर से धोया था
ख़ुदा ने बहर-ए-उल्फ़त में तिरी उल्फ़त को खोया था
अनादिल भी बढ़े तेरी तरफ़ दामन को फैलाए
मोहब्बत की ज़बाँ से तू ने जिस दम फूल बरसाए
फ़ज़ा को कर दिया रंगीन अपनी नग़्मा-ख़्वानी से
गुलों में फूँक दी रूह-ए-तबस्सुम गुल-फ़िशानी से
तिरे नग़्मे बहे जब निकहत-ए-गुल के सफ़ीने में
तो लाले ने बिठाया ला के तुझ को अपने सीने में
हर इक दर्द-आश्ना दिल में रखा तुझ को मोहब्बत ने
बिठाया चाँद के माथे पे तुझ को दस्त-ए-क़ुदरत ने
ज़मीन-ए-शेर ने पाया था औज-ए-आसमाँ तुझ से
ज़बाँ का लुत्फ़ था ऐ बुलबुल-ए-हिन्दुस्ताँ तुझ से
पयम्बर था सुख़न का तो तिरे नग़्मों पे झूमेंगे
हम अपने दीदा-ए-दिल से तिरी तुर्बत को चूमेंगे
रहेंगे हश्र तक बाक़ी तिरे नग़्मे नहीं फ़ानी
बजा है तुझ को कहते हैं जो हम तिल्मीज़-ए-रहमानी
तिरे जज़्बात के पुर-कैफ़ सैलाबों में बहते हैं
हक़ीक़त-आश्ना तुझ को जहाँ-उस्ताद कहते हैं
जहान-ए-आरज़ू में अब भी हाल-ओ-क़ाल तेरा है
सुख़न की मुम्लिकत में आज तक इक़बाल तेरा है
सुख़न-फ़हमों के दिल में अब भी तेरी याद बाक़ी है
ग़ज़ल के मय-कदा जब तक है क़ाएम तू ही साक़ी है
दकन में ज़ौक़ था ज़ौक़-ए-सुख़न महबूब था तुझ को
हमें मा'लूम है मुल्क-ए-दकन महबूब था तुझ को
दकन को आने वाले बस गया मुल्क-ए-दकन में तू
कि बुलबुल था बनाया आशियाँ अपना चमन में तू
क़यामत तक न भूलेंगे तुझे तेरे वतन वाले
कहीं बुलबुल के नग़्मे भूल जाते हैं चमन वाले
दिल-ए-बेताब के बरबत पे नग़्मा दर्द का गाया
तग़ज़्ज़ुल से हमारी महफ़िलों को तू ने गर्माया
तिरे एहसान के गुन गाएगा जोश-ए-वफ़ा-कोशी
दकन वालों की फ़ितरत में नहीं एहसाँ-फ़रामोशी
कलेजा थाम कर अपना तिरे अशआ'र गाएँगे
दकन की वादियों में हम तिरे नग़्मे बसाएँगे
अक़ीदत-आफ़रीं गुल तेरी तुर्बत पर चढ़ाएँगे
तिरे हर शे'र को हम अपनी आँखों से लगाएँगे
नज़्म
'दाग़'
मैकश अकबराबादी