ये सच है कि मैं इस तमाशे में शामिल नहीं
फिर ये कैसी सज़ा मिल रही है मुझे
ये मैं किस दाएरे में खड़ा हूँ जहाँ
आज कोई नहीं
एक मेरे सिवा
वो हवा जो कभी मुझ से वाबस्ता थी
आज मुझ से जुदा हो गई
मेरी आवाज़ के साथ जाने कहाँ खो गई
ये मैं किस दाएरे में खड़ा हूँ जहाँ
इक सियाही है गहरी घनी हर तरफ़
ख़ामुशी क़ब्र की ख़ामुशी हर तरफ़
मेरे माज़ी का सूरज सियह-पानियों में गिरा बुझ गया
मेरे सारे उजाले अँधेरे हुए
आज तन्हा हूँ मैं
हाल के इस सियह दाएरे में खड़ा
इक तमाशा हूँ मैं
नज़्म
दायरा
कुमार पाशी