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पत्तों के साए | शाही शायरी
patton ke sae

नज़्म

पत्तों के साए

तरन्नुम रियाज़

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शाम के ढलते उतरने के लिए कोशाँ
हुआ करती है जब जब मख़मलीं शब

बाग़ के अतराफ़ फैले सब घरों की बतियाँ
जलती हैं इक के बा'द इक इक

ऐसे में पत्तों के साए खिड़कियों के लम्बे शीशों पर
समेटे अपना सारा हुस्न मुझ को देख कर गोया

ख़ुशी से मुस्कुराते हैं जहान-ए-दिल सजाते हैं