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वो औरत थी | शाही शायरी
wo aurat thi

नज़्म

वो औरत थी

वक़ार ख़ान

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ख़ला की मुश्किलात अपनी जगह क़ाएम थीं और दुनिया
उजड़ती भरभरी बंजर ज़मीनों की निशानी थी

सितारे सुर्ख़ थे और चाँद सूरज पर अँधेरों का बसेरा था
दरख़्तों पर परिंदों की जगह वीरानियों के घोंसले होते

ज़मीं की कोख में बस थूर था और ख़ार उगते थे
हवा को साँस लेने में बहुत दुश्वारियाँ होतीं

तो फिर उस नूर वाले ने कोई लौह-ए-अनारा भेज दी शायद
अँधेरे रौशनी पे किस तरह ईमान ले आए

बलाएँ किस तरह परियों की सूरत में चली आईं
ये किस नौरल सुवैबा की ख़ुदा तख़्लीक़ कर बैठा

ये नर्मी दिलबरी शर्म-ओ-हया तख़्लीक़ कर बैठा
वो नौरल वो सुवैबा जिस की ख़ातिर आसमाँ से रंग उतरे थे

वो जिस के दम से दुनिया पर नज़ाकत का वजूद आया
ख़ुदा-ए-ख़ल्क़ ने नौरल से पहले ही हवस तख़्लीक़ कर दी थी

नज़ाकत तक हवस की दस्तरस तख़्लीक़ कर दी थी
हज़ारों साल गुज़रे हैं मगर फ़ितरत नहीं बदली

निगाहें अब भी भूकी हैं कि जैसे खा ही जाएँगी
हवस-ज़ादों ने कैसे नूर से मुँह पर मली कालक

हर इक रिश्ता ज़रूरत के मुताबिक़ किस लिए बदला
हवस-ज़ादो बदन-ख़ोरो ज़रा सी शर्म फ़रमाओ

वो नौरल वो सुवैबा रौशनी का इस्तिआ'रा थी
कभी हव्वा कभी मरियम कभी लौह-ए-अनारा थी

वो औरत थी