क्या जाने उस ज़रीफ़ के क्या दिल में आई थी
कर्फ़्यू में जिस ने महफ़िल-ए-शेरी सजाई थी
अल्लाह ऐसा ज़ौक़ जहन्नम में डाल दे
कर्फ़्यू में शाइरों को जो घर से निकाल दे
ऐसे में जब कि शहर के सब रास्ते हों बंद
सड़कों पे आ गए थे ये बा-ज़ौक़ शर-पसंद
ऐसे में जब कि घर से निकलना मुहाल था
लेकिन ये शाइरों की अना का सवाल था
शेअरी-महाज़ ख़ाना-ए-शाएर से दूर था
काबा में हाजियों को पहुँचना ज़रूर था
शाइर रवाँ थे शेर के चाक़ू लिए हुए
दिल में ख़याल-ए-ख़िदमत-ए-उर्दू लिए हुए
ज़ोर-ए-क़लम के साथ सिपाह-ए-रियाज़ थी
क़ानून हाथ में था बग़ल में बयाज़ थी
गलियों में क़त्ल-ओ-ख़ूँ था सड़क पर फ़साद था
शाइर ब-ज़ोर-ए-फ़िक्र शरीक-ए-जिहाद था
कैसी निकल रही थी सदा गन-मशीन से
जैसे किसी को दाद मिले सामईन से
शाइर बयाज़ लाए थे संदूक़ की तरह
मिसरे उगल रहे थे वो बंदूक़ की तरह
जब फ़ाइरिंग अहल-ए-सुख़न की हुई तमाम
ये ख़िदमत-ए-अदब का पुलिस ने सिला दिया
कुछ शाइरों को रोड पे मुर्ग़ा बना दिया
कुछ कोहना-मश्क़ भी थे सुजूद-ओ-रुकू में
जबरन उन्हें पढ़ाया गया था शुरूअ' में
तरही मुशाएरे का समाँ दे रहे थे वो
इक मिस्रा-ए-तरह पे अज़ाँ दे रहे थे वो
कुछ शाइरों को नग़्मा-सराई की फ़िक्र थी
सद्र-ए-मुशाइरा को रिहाई की फ़िक्र थी
जब शाइरों के हाथ शरीक-ए-दुआ हुए
कर्फ़्यू का वक़्त ख़त्म हुआ तब रिहा हुए
सब अपने अपने घर गए इस हाव-हू के बअ'द
शाइर-अज़ीम होता है हर कर्फ़्यू के बअ'द
नज़्म
कर्फ़्यू में मुशाएरा
खालिद इरफ़ान