कर्तब का बस शौक़ हुआ था
मेरे बस का काम नहीं है कब सोचा था
बिन सोचे समझे मैं यूँही चल निकला था
चलते चलते मुझ को ये एहसास नहीं था
चलना यूँ दुश्वार भी हो सकता है इक दिन
ख़ौफ़ कोई तलवार भी हो सकता है इक दिन
मेरे पाँव किसी लम्हे शल हो सकते हैं
आज नहीं होंगे शायद
कल हो सकते हैं
कब तक अपनी साँस की तरह मैं लटकूँगा
अपने अंदर की तारीकी में भटकूँगा
दिल है एक सिरे पर
जाँ है एक सिरे पर
न है एक किनारे हाँ है एक सिरे पर
कब तक कर्तब और चलेगा कब मैं नीचे आऊँगा
या मैं यूँही लटके लटके
साँस को रोके मर जाऊँगा
मेरा मालिक लाऊड-स्पीकर मुँह में लिए चिल्लाता है
गिरना नहीं है गिरना नहीं है
मुझ को याद दिलाता है
मेरे पैर जो पहले शल थे
ख़ौफ़ ने पत्थर कर डाले हैं
मेरी आँख से ख़ूँ रिसता है
और साँसों में छाले हैं
नीचे सीटी मारते लोगों से ताली बजवानी है
आँखें भी बंद रखनी हैं गिर अपनी जान बचानी है
एक सिरे पर मैं हूँ दूजा दूर दिखाई देता है
मेरे पाँव तले शो'लों का
शोर सुनाई देता है
नीचे गिरा तो ऐन यक़ीं है
दहकी आग में जलना होगा
ख़ौफ़ में गुम हूँ जाने कब से सोच रहा हूँ
मछली की उस डोर पे आख़िर
कब तक मुझ को चलना होगा
नज़्म
सर्कस
अली इमरान