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सिगरेट | शाही शायरी
cigarette

नज़्म

सिगरेट

प्रेम वारबर्टनी

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जिस तरह हसरतों के मरघट में
धीरे धीरे सुलग रहा हो धुआँ

जिस तरह हो किसी सितारे पर
एक बुझते हुए दिए का गुमाँ

जिस तरह मिट रही हो बन बन कर
यास-अंगेज़ वक़्त की तहरीर

इस तरह तेरे सुर्ख़ होंटों पर
काँपती है घने धुएँ की लकीर

खेलते हैं फ़ज़ा की साँसों से
नन्हे नन्हे तिलिस्मी मर गोले

हल्के नीले धुएँ की लहरों से
धुलने लगती है गर्द रंज-ओ-मेहन

तेरे हर एक कश की तल्ख़ी में
डूब जाती है ज़िंदगी की थकन

हश्र-सामानियाँ तफ़क्कुर की
जब भी लेती हैं दिल में अंगड़ाई

तुझ को रह रह के याद करती है
शाम-ए-ग़म की उदास तन्हाई

ये तो सब कुछ दुरुस्त है लेकिन
आज की रात मैं अकेला हूँ

बंद कमरा है और ख़ामोशी
हादसे कर रहे हैं मेरी तलाश

ज़ेहन को डस रही है फ़िक्र-ए-मआ'श
क्या करूँ क्या करूँ किधर जाऊँ

तुझ से किस तरह दिल को बहलाऊँ
सोचता हूँ कि ग़र्क़ हो जाऊँ

तेरे कड़वे धुएँ की ख़ुश्बू में
लेकिन ऐसा भी हो नहीं सकता

तेरे कड़वे धुएँ की ख़ुश्बू में
ग़म का एहसास खो नहीं सकता

तू मिरे ग़म को क्या मिटाएगा
तू भी मेरी तरह है शो'ला-फ़िशाँ

मेरे सीने में जल रही है आग
तेरे सीने से उठ रहा है धुआँ

मेरे दिल में भी सोज़ पलता है
मैं भी जलता हूँ तू भी जलता है