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सिगरेट और पान का मुकालिमा | शाही शायरी
cigarette aur pan ka mukalima

नज़्म

सिगरेट और पान का मुकालिमा

सय्यद मोहम्मद जाफ़री

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सिगरेट ने ये इक पान के बीड़े से कहा
तू हमेशा से परी-रूयों के झुरमुट में रहा

कौन सी ऐसी हैं ख़िदमात तिरी बेश-बहा
ख़ूँ-बहा क्यूँ लब-ओ-दंदान-ए-हसीनाँ से लिया

तुझ में क्या ल'अल लगे हैं कि तू इतराता है
बे-हिजाबाना हर इक बज़्म में आ जाता है

सिगरेट से जो सुने पान ने ये तल्ख़ सुख़न
बोला ख़ामोश कि अच्छा नहीं हासिद का चलन

जलते रहने से धुआँ बन के मिटा तेरा बदन
तू लगा मुँह को तो ग़ाएब हुई ख़ुशबू-ए-दहन

काग़ज़ी पैरहन और उस पे तू फ़रियादी है
ख़ुद-ब-ख़ुद ग़ुस्सा में जल जाने का तू आदी है

इस पे सिगरेट ने कहा पान से ये क्या है सितम
छाँव में पलता है और तू है बड़ा सब्ज़ क़दम

कत्थे, चूने पे, डली पर तिरा क़ाएम है भरम
तुझ पे चाँदी के वरक़ लिपटें तो क्या है तुझे ग़म

ख़ास-दानों के मुहाफ़ों में सफ़र करता है
रात दिन माह-जबीनों में बसर करता है

पान बोला कि जलाता है तू क्यूँ क़ल्ब-ओ-जिगर
एशियाई मैं हूँ, मग़रिब का है तू सौदागर

काश तू अपने गरेबान में मुँह डाले अगर
तू वो बे-बस है कि माचिस का जो हो दस्त-ए-निगर

आग बरसाने में सारी तिरी रानाई है
और ये चिंगारी भी बाहर से कहीं पाई है

बोला सिगरेट कि बशर शिकवा-कुनाँ हैं तेरे
दर-ओ-दीवार पे पीकों के निशाँ हैं तेरे

जो लिपस्टिक में हैं वो जल्वे कहाँ हैं तेरे
ख़ुद तो हल्का है प नुक़सान गिराँ हैं तेरे

न ग़िज़ा में न दवा में है तो फिर कौन है तू
तू हलाकू है कि तैमूर कि फ़िरऔन है तू

पान कहने लगा सिगरेट से कि इबलीस-ए-लईन
तेरी तम्बाकू से जाती है बदन में निकोटीन

तुझ से पैदा हुए अमराज़ निहायत संगीन
बे-तमीज़ इतना कि महफ़िल में जलाए क़ालीन

राख से तेरी भरी देखते हैं एश-ट्रे
कोई गिरने को तो गिर जाए पर इतना न गिरे

जल के ख़ुद सब को जिला देना तिरा पेशा है
छुप के बैठी है अजल जिस में तू वो बेशा है

जान ले अपने ही आशिक़ की जो वो तेशा है
तेरे पीने से तो सरतान का अंदेशा है

जो तुझे मुँह से लगाएँगे लहू थूकेंगे
और भी चीज़ों के कश लेने से कब चूकेंगे

सुल्ह इन दोनों की आख़िर में कराई मैं ने
पान में डाल के तम्बाकू भी खाई मैं ने

लब से सिगरेट के जो चिंगारी उड़ाई मैं ने
शेर और फ़िक्र की शम्अ उस से जलाई मैं ने

पान से मैं ने कहा शान तिरी बाला है
तू है नौशा तो ये सिगरेट तिरा शहबाला है