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चराग़ जब मेरा कमरा नापता है | शाही शायरी
charagh jab mera kamra napta hai

नज़्म

चराग़ जब मेरा कमरा नापता है

सारा शगुफ़्ता

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चराग़ ने फूल को जन्म देना शुरूअ' कर दिया है
दूर बहुत दूर मेरा जन्म दिन रहता है

आँगन में धूप न आए तो समझो
तुम किसी ग़ैर-आबाद इलाक़े में रहते हो

मिट्टी में मेरे बदन की टूट-फूट पड़ी है
हमारे ख़्वाबों में चाप कौन छोड़ जाता है

रात के सन्नाटे में टूटते हुए चराग़
रात की चादर पे फैलती हुई सुब्ह

मैं बिखरी पतियाँ उठाती हूँ
तुम समुंदर के दामन में

किसी भी लहर को उतर जाने दो
और फिर जब इंसानों का सन्नाटा होता है

हमें मरने की मोहलत नहीं दी जाती
क्या ख़्वाहिश की मियान में

हमारे हौसले रखे हुए होते हैं
हर वफ़ादार लम्हा हमें चुरा ले जाता है

रात का पहला क़दम है
और मैं पैदल हूँ

बैसाखियों का चाँद बनाने वाले
मेरे आँगन की छाँव लुट चुकी

मेरी आँखें मरे हुए बच्चे हैं
और फिर मेरी टूट-फूट

समुंदर की टूट फूट हो जाती है
मैं क़रीब से निकल जाऊँ

कोई सम्त-ए-सफ़र की पहचान नहीं कर सकती
शाम की टूटी मुंडेर से

हमारे तलातुम पे
आज रात की तरतीब हो रही है

मुसाफ़िर अपने संग-ए-मील की हिफ़ाज़त करता है
चराग़ कमरा नापता है

और ग़म मेरे दिल से जन्म लेता ही है
ज़मीन हैरत करती है

और एक पेड़ उगा देती है