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चलो फिर एक नया मज़हब बनाएँ | शाही शायरी
chalo phir ek naya mazhab banaen

नज़्म

चलो फिर एक नया मज़हब बनाएँ

कमल उपाध्याय

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चलो फिर एक नया मज़हब बनाएँ
कुछ और लोगों को बाँटे आपस में

बढ़ाएँ रंजिशें उन की
उकसाएँ लोगों को क़त्ल-ए-आम के लिए

कुछ मरेंगे
कुछ लहूलुहान होंगे

चिंगारी जलती रहेगी
पीढ़ी-दर-पीढ़ी

एक दूसरे को नीचा दिखाने की
कुछ और ख़ुद-ग़रज़ कूद पड़ेंगे

इस रंजिश के खेल में
सेकेंगे रोटियाँ

मय्यत की चिंगारी पर
आग बुझ गई तो

मज़ार के
दिए

से फिर जला देंगे
जला कर घर हमारा

अपना महल रौशन करेंगे
बीत जाएँगी कई पीढ़ियाँ

भूल जाएँगी कारन आपसी लड़ाई का
धर्म-गुरु फिर उठेंगे

सीख देंगे धर्म-रक्षा का
कहेंगे लड़-मरो

अपने धर्म के लिए
लेकिन

कभी स्वयं धर्म की रक्षा के लिए लड़ने ना आएँगे
चलो फिर एक नया मज़हब बनाएँ

कुछ और लोगों को बाँटें आपस में