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चारागरो | शाही शायरी
chaaragaro

नज़्म

चारागरो

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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सनम-कदों में चराग़ाँ है मय-कदों की तरफ़
निगाह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ की सबील जारी है

हर इक फ़ुसूँ है, मगर बे-असर है चारागरो
इधर भी तिश्ना-लबी मुस्तक़िल नहीं जाती

यहाँ भी नश्शा-ए-ना-मो'तबर है चारागरो
मैं ऐसा जादा-ए-मंज़िल गुज़िश्ता हूँ जिस के

हर एक संग में ज़ख़्म-ए-सफ़र है चारागरो
हर एक दिन की तरह था विसाल का दिन भी

जिलौ में फ़र्श, न क़दमों में आसमान लिए
क़रीब आए और आ कर बदल गए मौसम

गुज़र गई शब-ए-हिज्राँ बग़ैर जान लिए
कोई सुने भी तो क्या दास्ताँ सुनाऊँ उसे

हदीस-ए-शाम-ओ-सहर मुख़्तसर है चारागरो
सिवाए ये कि दिल आशुफ़्ता-सर है चारागरो