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चाँदनी कहती है | शाही शायरी
chandni kahti hai

नज़्म

चाँदनी कहती है

माह तलअत ज़ाहिदी

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रोज़-ओ-शब
हल्क़ा-ए-आफ़ात हैं

हर लहज़ा जवाँ
सिलसिला वक़्त की गर्दिश का यहाँ

सब हैं पाबंदी-ए-औक़ात-ए-ज़माना में मगन
जान-आे-तन फ़हम-ओ-ख़िरद होश-ओ-गुमाँ

तुम ही तन्हा नहीं इस सैल-ए-रवाँ में मजबूर
मैं भी जीती हूँ यहाँ ख़ुद से गुरेज़ाँ हो कर

फिर भी इक लम्हे की फ़ुर्सत जो मयस्सर आए
दिल वहीं चुपके से धड़कन को जगा देता है

तार-रातों में बिखरती हैं रुपहली किरनें
चाँदनी पिछली मुलाक़ातों के आईने में

रोज़-ए-आइंदा से मिलती है गले
कहती है

अन-कही बातों की ख़ुश्बू से मोअ'त्तर रखना
अपनी आवाज़ अभी

ज़िंदगी कितनी ही बे-मेहर सहमी
फिर भी बहार आएगी

आँखों में बसाए रखना मेरे अंदाज़ अभी